सहारनपुर 02.08.12-“श्री भक्तामर स्तोत्र “इस भक्ति स्तोत्र में परम पूज्य आचार्य भगवन् श्री 108 मानतुंग स्वामी ने हमें अनेक शिक्षायें दी हैं, हमें भक्ति कैसे करना चाहिए, यह बतलाया है। सर्वप्रथम आचार्य भगवन् ने स्तोत्र में “भक्तामर” शब्द रखा है। जिसका अर्थ है भक्त + अमर । यहाँ आचार्य भगवन्त ने अमर शब्द देवों के लिए प्रयुक्त किया है, जिसका अर्थ है जो कभी मरता नहीं है। स्वर्ग के देव कभी अकाल मृत्यु को प्राप्त नहीं होते हैं अतः वे अमर कहलाते हैं किन्तु स्वर्ग के देव भी अपनी आयु के अंत में मरण को प्राप्त होते हैं। बन्धुओं। अमर शब्द के पूर्व आचार्य भगवन ने भक्त शब्द रखा है। सारांश यही है कि जो जिनेन्द्र भगवान् का भक्त है वही अमर हो सकता है। अब प्रश्न होता है कि हम कैसी भक्ति करें जिससे हम अमर भक्त बन सकें १ आचार्य भगवन् कहते हैं यदि सच्ची भक्ति करनी है तो आप पूज्य पुरुषों के शुनों में अनुराग करना सीख जाइए। जब तक गुणों को जानकर उन गुणों में आप अनुराग नहीं करेंगे तब तक अंतरंग में समीचीन भक्ति जन्म नहीं ले सकती। गुणों में अनुराग पूर्वक आपकी जो भक्ति होगी वह भक्ति अमर भक्ति होगी और आप अमर भक्त कहलायेंगे।
भक्ति कैसे की जाती है? यह आचार्य बतलाते हैं “भक्तामर प्रणत” आपकी भक्ति अमर अवश्य होगी, बस आप प्रणत अर्थात् झुकना सील आइयै । जिसे झुकना नहीं आया, वह भक्त नहीं हो सकता, वह अपने जीवन में कुछ भी उपलब्धि नहीं कर सकता । बन्धुओ। झुक जाने से कोई छोटा-हीन नहीं हो जाता अपितु जो झुकता है, विनय करता है निश्चित ही वह महान हो जाता है। अभिमान मनुष्य को झुकने महीं देता, लेकिन जो मनुष्य अभिमान त्याग कर विनय भक्ति को जीवन में धारण करते हैं वे इस धरती पर महापुरुष माने जाते हैं।
हैं। स्वर्ग में देवों का मुकुट ही स्वाभिमान होता है, इन्द्रों का मुकुट किसी के भी समक्ष झुकता नहीं है, इस लोक में एक मात्र अरहंत परमात्मा ही हैं जिनके चरणों में इन्द्रों के भी रत्नजडित मुकुर जाते हैं। प्रथम तीर्थकर आदिनाथ स्वामी के पैरों के नखों की कान्ति अतिविशिष्ट होती होती है है। प्रभु के चरणों में सुके हुए इन्द्रों के मुकुट में लगे नगि भी प्रभु के नखों की कान्ति से प्रकाशित होने लगते हैं। भगवान के समवशरण में आकर इन्द्र आदि देव विचार करते हैं अब यह मुकुट हमारा स्वाभिमान नहीं है अब तो तीन लोक के मुकुट तीर्थकर आदिनाथ स्वामी ही हमारा स्वाभिमान हैं। अतः इन्द्रों है मुकुट सहित मस्तक भी प्रभु के चरणों में बिनय सहित झुक जाते
जिनेन्द्र भगवान ने हम सभी को शुद्ध आचार एवं शुद्ध बिचार की जहाँ आपका शुद्ध आचार बिगड़ने लगता है वहाँ अनाचार प्रवृत्तियाँ बड़ने लगते शिक्षा दी है हैं और जहाँ विचार पक्ष बिगड़ने लग जाता है वहाँ क्रूरता बड़ने लग जाती हैं। बन्धुओ ! जिस घर में जिनेन्द्र देव द्वारा प्ररूपित आचार-विचार कायम है वही घर जैन घर है जिस घर से यह आचार-विचार गायब हो गया है वह तो मात्र नाम के जैन हैं ऐसे घरों में कोई संस्कार नहीं रहते, उन घरों से धर्म पलायन कर जाता है। जिन घरों में निर्मान्य मुनिराजों का आवागमन बना रहता है उन घरों का आचार-विचार स्वयमेव शुद्ध बना रहता है वहाँ धर्म जीवंत रहता है।
अमर भक्त वही हो सकता है जो विनय सहित झुकना जानता है- भावलिंगी संत दिगम्बराचार्य श्री विमर्शसागर जी महामुनिराज
