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कर्मों का फल अटल है — जो जैसा करेगा, वैसा ही पाएगा — श्रुताराधक सन्त क्षुल्लक श्री प्रज्ञांशसागर जी गुरुदेव

दिनांक 29 मई 2025:
परम पूज्य श्रुताराधक सन्त क्षुल्लक श्री प्रज्ञांशसागर जी गुरुदेव ने आज अपने प्रवचन में जैन धर्म के गूढ़ “कर्म सिद्धान्त” को आत्म-मन्थन हेतु वैज्ञानिक और आध्यात्मिक गहराई से व्याख्या करते हुए अत्यन्त सरल, जीवनस्पर्शी और प्रेरक शैली में समझाते हुए कहा —
> “यह संसार किसी की मनमानी से नहीं, कर्मों के विधान से चलता है। हम जो भी दुःख, पीड़ा या परेशानी आज भोग रहे हैं, वह किसी और के कारण नहीं, हमारे ही पूर्वजन्मों में किए गए कर्मों का परिणाम है।”
गुरुदेव ने उदाहरणों के माध्यम से बताया कि हम जब किसी विपत्ति में होते हैं तो तुरन्त दूसरों को दोष देने लगते हैं — “उसने मेरे साथ ऐसा किया”, “उसकी वजह से मैं दुःखी हूँ” — लेकिन हम यह विचार ही नहीं करते कि क्या कभी हमने भी किसी के साथ ऐसा किया था? क्या हमारी आत्मा पर पूर्व का कोई ऐसा कर्म बन्धन तो नहीं है जो आज परिणाम दे रहा है?
उन्होंने स्पष्ट किया कि:
> “कर्म न तो खोते हैं, न मिटते हैं — वे निश्चित समय पर अपना फल अवश्य देते हैं।”
दूसरों को दोष देने से कर्म नहीं कटते।
गुरुदेव ने कहा कि यदि कोई व्यक्ति हमें अपमानित करता है, पीड़ा देता है या धोखा देता है, तो हम उसी को गलत मान लेते हैं। परन्तु जैन दर्शन कहता है कि उसके व्यवहार के पीछे भी हमारे ही कर्म कारण बने हैं। किसी के बुरे व्यवहार के पीछे छुपा हुआ कारण कहीं न कहीं हमारे ही कर्म हैं।
> “बुरा कोई नहीं करता, बुरा हमारा ही कर्म करवाता है।” जीवन में जो कुछ भी हो रहा है वह हमारे ही पूर्व सञ्चित कर्मों का फल है।
कर्मों को बदलने की चाबी है — स्वपरिवर्तन
गुरुदेव ने आत्मावलोकन की प्रेरणा देते हुए कहा कि यदि हम यह समझ जाएं कि हमारी वर्तमान परिस्थिति हमारे ही कर्मों का प्रतिबिम्ब है, तो हम दोषारोपण की प्रवृत्ति छोड़कर आत्मसुधार की ओर अग्रसर होंगे।
> “दूसरों को बदलने से पहले ख़ुद को बदलो, अपने कर्मों को समझो और सुधारो।” आत्म मन्थन के भाव में आते ही जीवन में शान्ति, सन्तुलन और समता आ जाती है।
जैन धर्म का कर्म सिद्धान्त क्या सिखाता है?
1. स्वयं के कर्मों का दायित्व स्वयं पर है।
2. जो जैसा करता है, वैसा फल भोगता है।
3. किसी के साथ अन्याय करने पर वह लौटकर अवश्य आता है — यही कर्म का न्याय है।
4. क्षमा, संयम और आत्म चिन्तन
और आत्म नियन्त्रण से ही कर्म क्षीण अर्थात् कर्मों की निर्जरा होती हैं।
गुरुदेव के इन प्रवचनों को सुनकर अनेक श्रद्धालु आत्म-मन्थन में डूब गए और उन्होंने संकल्प लिया कि अब से अपने कर्मों की जिम्मेदारी ख़ुद उठाएंगे और दूसरों को दोष देने से पहले स्वयं के भीतर झांकेंगे।
अन्त में गुरुदेव ने कहा:
> “दूसरे तुम्हारे साथ क्या कर रहे हैं, यह उनके कर्म हैं; तुम उनके साथ क्या कर रहे हो, यह तुम्हारा धर्म है।”
श्रद्धालुओं को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा कि— जीवन में आत्मनिरीक्षण करें, दूसरों को दोष देना बन्द करें और हर परिस्थिति को कर्म फल की दृष्टि से देखें। यही जैन धर्म की गहराई है- आत्म विश्लेषण, आत्म परिष्कार और आत्म दर्शन।

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