इंदौर-, पथरिया ।परिणामों को विशुद्ध करो, परन्तु भूलकर भी गलत कार्य मत करो। गलत करना भी नहीं, गलत सोचना भी नहीं, गलत सलाह भी नहीं देनाऔर गलत की अनुमोदना भी नहीं करना। परस्पर में जीवन ऐसे जियो कि समाज की एकता/अखंडता नष्ट ना हो। छोटों की बात भी सुनी जावे और बड़ों का भी आदर, सम्मान
बना रहे। धर्म समाज प्रचारक राजेश जैन दद्दू ने बताया कि
यह उद्गार श्रमण संस्कृति के महामहिम चर्या शिरोमणि पूज्य आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज ने पथरिया में धर्म सभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किये। अपने आगे कहा कि
यदि कोई गलत नहीं कर रहा है, तो उसके कई कारण हो सकते हैं। सामाजिक प्रतिबन्ध, धर्म का प्रतिबन्ध, राष्ट्र का प्रतिबन्ध, राज्य का प्रतिबन्ध, शासन का प्रतिबन्ध, लोकाचार का प्रतिबन्ध, घर-परिवार का प्रतिबन्ध, जिससे तुम पाप कर नहीं पा रहे हो, यह कोई बड़ी बात नहीं है। यदि तुम सच्चे धर्मात्मा हो, तो अपने मन में गलत सोचना भी नहीं, ये स्वयं का धर्म है। गलत नहीं सोचना, ये साधन है। अपने आपको संयमित रखना, यही तो साधना है। पाप नहीं करना, यह कोई बड़ी बात नहीं है। अपने चित्त को निर्मल रखना और अपने परिणामों को पवित्र रखना, यह तुम्हारी साधना है जो तुम्हें पाप से बचाएगी ।
अदृष्ट और दृष्ट जो है, इसे श्रुतज्ञान से जाना जाता है। हम परोक्ष ज्ञान से भी अदृष्ट और दृष्ट को जान सकते हैं और जान ही रहे हैं। परोक्ष भी प्रमाण है; स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, आगम ये परोक्ष-प्रमाण के भेद हैं। आगम को पढ़ो, आगम को जानो, आगम के अनुसार जीवन जियो।
भैया ! सूर्यमुखी-पुष्प बनकर जीवन जियो। सूर्य जैसे-जैसे घूमता है वैसे-वैसे सूर्यमुखी पुष्प घूमता जाता है। समाज में आनंद और शांति तब ही होती है जब समाज दिगम्बर-गुरुओं की सेवा भक्ति में तल्लीन रहती है। भैया ! तुम्हें रीति-नीति का परिचय भी होना चाहिए। यदि रीति-नीति का ज्ञान नहीं होगा, तो परिवार व समाज की एकता संभव नहीं है। यदि आपका बेटा किसी पड़ोसी से झगड़ा करके आ गया और उसका पिता आपसे शिकायत करने आगया लेकिन आप यदि समझदार हो तो आप ही अपने बेटे को थोड़ा समझाकर डाँट दोगे तो सामने वाला स्वयं ही शांत हो जाएगा। जीवन भी जियो तो नीति के साथ
जियो।
पुण्यात्मा भूतों के घर में पहुँच जाय तो सम्मान प्राप्त करता है। जिसके पास नीति और पुण्य है उसे कोई पराजित नहीं कर सकता है। पुण्यात्मा के पास आते ही शत्रु भी विनम्र हो जाता
है ज्ञानियो ! संक्षेप में यही समझना; भाई भी लड़ने खड़ा हो जाय, तो हाथ जोड़कर खड़े हो जाना और मन में अदृष्ट को निहारना। मैंने पूर्व-पर्याय में कभी इस जीव को कष्ट दिया होगा, इसी कारण आज भाई लड़ रहा है। चरण छू लेना, तो वह भी पानी-पानी हो जाएगा।
मुनि भगवंतों पर जब-जब उपसर्ग हुए, तो उन्होंने किसी को दोष नहीं दिया, अपितु समत्व-भाव से, समता धारण कर अदृष्ट को निहारा, तो वह भी भगवान् बन गए। इस प्रकार दृष्ट व अदृष्ट को निहार कर, समता धारण कर शिवत्व के लिए पुरुषार्थ करें

