संग्रहवृति दुःख का कारण है, “उत्तम त्याग धर्म” सुखी बनाता है – भावलिंगी संत श्री दिगम्बराचार्य श्री विमर्शसागर जी महामुनिराज

उत्तम त्याग धर्म आत्मा के राग-द्वेष आदि काषायिक भावों का अभाव होना ही वास्तविक त्याग धर्म है। चार प्रकार के दान भी इसी त्याग धर्म के अन्तर्गत आते हैं। साधना का सच्चा आनन्द राग में नहीं अपितु त्याग में ही है। निस्वार्थ भाव से दिया गया दान ही त्याग धर्म है।
उत्तम त्याग धर्म – त्याग जीवन में जागरण का संदेश देता है। अनादि से आत्मा संसारी पदार्थों के राग में अपने चैतन्य स्वभाव को खोता रहा है। आत्मा को पाना है, तो त्याग करो। पदार्थ का त्याग करते ही इच्छाओं का भी त्याग हो जाता है। पदार्थ हमें तात्कालिक सुख की भ्रांति तो दे सकते हैं लेकिन त्रैकालिक सुख शांति नहीं दे सकते। जीवन भर व्यक्ति बस इसी आस में जीता रहता है कि शायद ये परपदार्थ मुझे सुखी बना देंगे ? लेकिन ये मात्र कोरी भ्रांति है। सब कुछ तुमसे छूट जाये, उससे पहले तुम ही सब कुछ छोड़ देना। अगर नहीं छोड़ पाये तो सब कुछ छुड़ा लिया जायेगा। इसलिये जागो, भीतर से जागो, त्यागो, भीतर से त्यागो। उत्तम त्याग धर्म केवल चर्चा के लिए नहीं है अनुभूति के लिए है और आंतरिक आसक्तियों को तोड़ने का पुरुषार्थ करने के लिए है। त्याग करने के स्वतंत्र परिणाम होना चाहिए। किसी की स्मृति में दिया गया दान निरर्थक होता है। मृत्युभोज और मृत्युदान दोनों समान है। न मृत्युभोज करने योग्य है और न मृत्युदान लेने योग्य है और न ही देने योग्य है। जैन धर्म के दशलक्षण महापर्व मे आज उत्तम त्याग धर्म का दिन है |
सहारनपुर मे परम पूज्य भावलिंगी संत दिगंबर जैनाचार्य श्री विमर्शसागर जी महामुनिराज ससंघ (30 पीछी) के सानिध्य मे “उपासक धर्म संस्कार शिविर” मे जैन धर्मानुयायी भावशुद्धि के द्वारा अपने जीवन को कर रहे है सफल |

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