राकेश अचल
अच्छी खबर हमेशा अच्छी होती है। मसलन दलित-आदिवासी और महिला उत्पीड़न के लिए बदनाम मध्य्प्रदेश में बाघों का कुनबा आज भी बढ़ रहा है। बाघों की आबादी के मामले में मध्य्प्रदेश आज भी अव्वल है। ये विचित्र किन्तु सत्य बात है की मध्यप्रदेश में जहाँ अफ्रीका के चीते लगातार मर रहे हैं ,वहीं बाघों की आबादी को कोई खतरा नहीं है। इसका श्रेय मप्र के जंगलों को दिया जाये ,शिकारियों की उदारता को दिया जाए या राजनीतिक बाघों को दिया जाए ,ये निर्णय करना जरूर कठिन काम है।
पिछले दिनों अंतर्राष्ट्रय टाईगर दिवस पर केंद्र सरकार ने देशभर में बाघों की संख्या के आंकड़े जारी किए । आंकड़ाे के अनुसार मप्र ने इस बार भी सर्वाधिक बाघो की संख्या के साथ अपना ‘टाइगर स्टेट’ का ताज बरकरार रखा है। आंकड़ों के मुताबिक मप्र में 785 बाघ है जो कि पिछले आंकड़ों से 259 है। यानी मप्र में साल 2020 के बाद 259 बाघ बढ़े हैं। मप्र के बाद दूसरे और तीसरे नंबर पर कर्नाटक (563) और उत्तराखंड (560) है।
बाघों की आबादी के आंकड़े सरकारी योजनाओं के आंकड़ों जैसे होते हैं या नहीं,मै नहीं जानता लेकिन मुझे और मध्यप्रदेश के हर रहवासी को आनंद की अनुभूति होती है की कम से कम मध्यप्रदेश में बाघ लगातार बढ़ रहे हैं। इस उपलब्धि का सेहरा वन विभाग ने अपने सर पर बाँध लिया है। वन विभाग के अपर अधिकारी कहते हैं कि-‘ बेहतर बाघ प्रबंधन प्रबंधन के कारण यहां बाघों की संख्या बढ़ी है। वन विभाग को उम्मीद है की अगली गणना में यह संख्या बढ़कर एक हजार पहुंच जाएगी। वन विभाग का दावा है की राज्य सरकार की कोशिश है कि नए ‘लो प्रेशर एरिया ‘ बनाए जाएं ताकि बाघों की बढ़ती संख्या का नियमन किया जा सके ।
बाघों की बढ़ती आबादी वन्य प्रेमियों के लिए तो हर्ष का विषय है ही, देश के अन्य कई आयामों के लिए भी महत्वपूर्ण है। बाघों के संरक्षण के लिए देश में चलाये जा रहे प्रोजेक्ट टाइगर की सफलता न केवल भारत के लिए गर्व की बात है। आपको बता दें कि आज पूरे विश्व में बाघों की आबादी का 75 प्रतिशत हिस्सा अकेले भारत में है।भारत में प्रोजेक्ट टाइगर को 50 वर्ष हो गए हैं। भारत ने न केवल टाइगर को बचाया है, बल्कि उसे पनपने का एक अच्छा ईको सिस्टम दिया है। टाइगर रिजर्व वाले कुछ देशों में बाघों की आबादी या तो स्थिर है या घट रही है लेकिन भारत में यह बढ़ रही है। ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत अब जैव विविधता की दिशा में बहुत आगे जा चुका है। आज बाघ की आबादी 3 हजार पार हो गई है। वर्ष 2018 व 2019 में जारी बाघों की गणना में 2967 पाई गई थी। इससे पहले 2006 में यह संख्या 1411 थी।
बाघ एक बेहद खूबसूरत वन्यजीव है लेकिन उसे वनराज नहीं कहा जाता। न जंगल में न सियासत में। बाघ कोई स्थिति आदिवासियों जैसी ही है। मध्यप्रदेश में आजतक कोई वनवासी मुख्यमंत्री नहीं बना जबकि वनवासियों की आबादी 80 फीसदी है। यही बात बाघ पर लागू होती ह। आबादी में नंबर एक होने के बावजूद वनराज का तमगा शेर साहब के पास है। सियासत में अनेक टाइगर है। हमारे यहां के एक नेता जो केंद्रीय मंत्री भी हैं अपने आपको टाइगर यानि बाघ ही कहते थे । उन्होंने अपने आपको कभी शेर नहीं कहा। शेर और टाइगर के बीच की ये खाई न कभी मिटी है और न शायद कभी मिटेगी। इसे भगवान और भाग्य पर ही छोड़ दिया गया है।
एक समय देश में बाघों की तादाद 35 से 40 हजार के बीच थी। यब देश में कोई अमृतकाल नहीं था । कांग्रेस की सरकार थी। निरंतर होने वाले शिकार और तस्करी के चलते बाघों की संख्या में तेजी से गिरावट आ गई। बाघों के संरक्षण के लिए बकायदा मुहिम की शुरुआत वर्ष 1973 में की गई,दुर्भाग्य से उस समय भी कांग्रेस की सरकार थी । तब भाजपा और मोदी दोनों में से कोई नहीं था । उस समय देश में बाघों की संख्या बहुत कम थी। प्रोजेक्ट के शुरुआती दौर में मानस, पलामू, सिमलीपाल, कॉर्बेट, रणथंभौर, कान्हा, मेलघाट, बांदीपुर और सुंदरबेन समेत 8 टाइगर रिजर्व का खाका तैयार किया। शिकारियों पर नजर रखी गई। बाघों को शिकार करने के लिए जानवरों को खुला छोड़ा गया। प्रोजेक्ट टाइगर के बाद इस संख्या में धीरे-धीरे इजाफा हुआ।
देश में ये अकेली परियोजना है जो कामयाब हुई है और इसका श्रेय कोई भी अपने सर पर बाँध सकता है। प्रोजेक्ट टाइगर की सफलता ही है कि अब यह प्रोजेक्ट कुल सीमा 75,000 वर्ग किमी क्षेत्र में फैल गया है। बाघों की संख्या तीन हजार से ज्यादा हो गई है। 1980 के दशक में देश में 15 टाइगर रिजर्व थे। अब कुल 54 टाइगर रिजर्व हैं। 2014 में 2,226 और 2018 में 2,967 बाघ थे। बाघों की तरह होई मध्यप्रदेश में यदि वनवासियों को भी संरक्षण मिले ,उनके लिए अभ्यारण्य बने, जल,जंगल और जमीन पर वनवासियों के हकों की गारंटी दी जाये तो जंगल में बाघों के साथ ही वनवासियों को भी न्याय मिल सकता है। कोई उनके सर पर पेशाब करने की हिमाकत नहीं कर सकता। ये मौक़ा है की जब टाइगर प्रदेश में सत्तारूढ़ दल या मुख्य विपक्षी दल आगामी मुख्यमंत्री वनवासी समाज से देने का वादा कर सकता है ,लेकिन दुर्भाग्य की कोई भी इसके लिए राजी नहीं है।
बाघों के शेयर सियासत की बात करना ठीक नहीं है ,किन्तु ये दिल है की मानता ही नहीं। मेरा मन हमेशा से वनवासियों के लिए द्रवित रहता है। वन्य प्राणी और वनवासी बेहद सरल चित्त के होते है। इनका शिकार भी आसानी से किया जाए सकता है और संरक्षण भी। हमने बाघों का संरक्षण तो कर दिखा दिया किन्तु हम वनवासियों के मान-सम्मान के संरक्षण में अभी तक कामयाब नहीं हुए ,सियासत के टाइगर भी पालतू बिल्ली बना दिए गए हैं जो आजकल सिर्फ खम्भा नौंच रहे हैं। बहरहाल मप्र की इस उपलब्ध के लिए सभी टाइगरों को कोटि-कोटि बधाइयां। उन्हें भी जो सियासत के टाइगर हैं। उम्मीद की जाना चाहिए की एक दिन मप्र को टाइगर स्टेट के साथ ही वनवासी स्टेट का दर्जा भी हासिल हो जाएगा। वो दिन भी आएगा जब मप्र की कमान किसी वनवासी के हाथ में होगी।