भारतीय वसुन्धरा पर प्रतियदा से लेकर पूर्णमासी अथवा अमावस्या तक हर दिन त्यौहार होता है। रक्षाबंधन पर्व भारतदेश में आज प्रत्येक वर्ग के नागरिक मनाया करते हैं। यह रक्षाबंधन पर्व धार्मिक पर्व के साथ लौकिक पर्व के रूप में भी इस धरा पर मनाया जाता रहा है। जैनधर्म में भी यह महापर्व अति-प्राचीन काल से चला आ रहा है। ०१ अगस्त 2025 को सहारनपुर धर्मनगर की धरा पर भावलिंगी संत श्रमणाचार्य श्री 108 विमर्शसागर जी महामुनिराज ससंघ (30 पीछी) के सानिध्य में रक्षाबंधन पर्व मनाया गया, साथ ही जैन धर्म के 11 वें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ स्वामी का मोक्षकल्याणक महामहोत्सव निर्वाण लाडू चढ़ाकर मनाया गया । परम पूज्य आचार्य श्री विमर्शसागर जी महामुनिराज ने जैन धर्म में रक्षा-बंधन पर्व पर प्रकाश डालते हुए कहा
निर्ग्रन्य श्रमणों की रक्षा के रूप में मनाया जाने वाला यह रक्षाबंधन महापर्व 19 वें तीर्यकर भगवान मल्लिनाथ स्वामी के शासन काल से प्रचलित हुआ है। उस समय उज्जैनी नगर के राजा श्रीवर्मा के राज्य में अपने 700 मुनिराजों के विशाल संघ के साथ आचार्य भगवन् अकम्पन स्वामी पधारे। धर्मात्मा राजा श्रीवर्मा समूचे नगरवासियों के साथ आचार्य संघ के दर्शनार्य पधारे। राजा श्रीवर्मा तो धर्मात्मा था किन्तु उसके चार मंत्री धर्म भावना से शून्य ये इसीलिए वेमंत्री राजा से मुनिराजों के विषय में अन्यथा वचन कहने लगे। धर्मात्मा राजा को धर्मविपरीत वचन सहन नहीं हुए, राजा ने अपनी बुद्धिमत्ता से समीचीन वचन कहकर मंत्रियों को निरुत्तर कर दिया और सम्पूर्ण वैभव के साथ आचार्य संघ के दर्शनार्थ प्रस्थान कर दिया। इधर महाज्ञानी-ध्यानी आचार्य अकम्पन स्वामी ने सर्वसंघ के लिए मौनसाधना का आदेश दे दिया था। चारों ही मंत्रियों ने अचानक एक मुनिराज पर उपसर्ग खड़ा कर दिया, कपित होकर राजा ने उन्हें काला मुँह करके देश से बाहर निकाल दिया। चलते-चलते वे चारों ही हस्तिनापुर नगर पहुँचे, वहाँ छल से मिष्ट वचनों के द्वारा राजा पद्म को प्रसन्न कर मुंह माँगा वरदान राजकोष में ही सुरक्षित करा लिया। तब ही आचार्य अकम्पन तीर्थाटन करते हुए हस्तिनापुर नगर के समीपस्थ उद्यान में पधारे। चारों मंत्री भावी आशंका से चिंतित हो उठे और राजा पद्म से अपना वरदान माँग लिया कि “मैं सात दिनों तक राजसिंहासन का भोग करूँगा”। वचनबद्ध राजा को सात दिन के लिष्ट अपना राज्य छोड़ना पड़ा। राज्य पाते ही राजा बलि आदि चारों मंत्रियों ने आचार्य संघ के चारों और अग्नि जलवा दी और उस भीषण अग्नि में पशुओं को होमा जाने लगा। आचार्य अकम्पन स्वामी सहित 700 मुनिराज अपने ऊपर उपसर्ग जानकर समता भावों के साथ ध्यान में तल्लीन हो गये । इधर धरणीधर पर्वत पर निर्वाण पद की साधना कर रहे मुनिवर विष्णकुमार को आचार्य प्रवर सारचन्द्र जी द्वारा भेजे गए क्षुल्लक पुष्पदंत से ज्ञात हुआ कि हस्तिनापुर नगर में 700 मुनिराजों पर धोर उपसर्ग हो रहा है, वे तत्काल वात्सल्य भाव से भरकर अपनी ऋद्धि के प्रभाव से सीधे वहाँ उपस्थित हो जाते हैं और एक वटुक ब्राह्मण का रूप बनाकर राजा बलि जो किमिच्छकदान दे रहा था उससे मात्र तीन पग भूमि माँगते है, वचन प्राप्त होते ही मुनिवर विष्णुकुमार विक्रिया ऋद्धि से अपना विशाल रूप बना लेते हैं और दो पग में ही सम्पूर्ण पृथ्वी को नापकर राजा बलि से पूछते हैं, बोल तीसरा पैर कहाँ रखें? राजा बलि को अपने द्वारा किये गये घोर अपराध का बोध होता है वह मुनिवर के चरणों में गिरकर क्षमा की गुहार करता है। मुनिवर विष्णुकुमार क्षमा प्रदान कर उसको सुनिरक्षा का संकल्प दिलाते हैं। इतने दिनों तक नगर में हा-हाकार मचा हुआ था कि कैसे भी हो कोई तो मुनिराजों की रक्षा करो। उपसर्ग के दिनों में किसी भी धर्मात्मा श्रावकों के घरों में भोजन नहीं बना।
उपसर्ग दूर होते ही सभी श्रावक गण मुनिराजों को वहाँ से बाहर निकालते हैं, घुये के कारण मुनिराजों के कण्ठ रूंध जाते हैं, सभी का योग्य उपचार करके सभी धर्मात्माओंने अपने – अपने घरों में शुद्ध आहार तैयार करके मुनिराजों को योग्य अनुकूल आहार प्रदान किया । पश्चात् सभी धर्मात्मा श्रावक-श्राविकाओं ने एक-दूसरे की कलाई पर एक-एक संकल्प सूत्र बांधकर यह संकल्प लिया कि हम सदैव धर्म और निर्ग्रन्य मुनिराजों की रक्षा में सदैव तत्पर रहेंगे। तब से लेकर आज तक यहा मुनिरक्षा का पर्व रक्षाबंधन के रूप में मनाया जाता है। यह भाई-बहन का लोक पर्व तो बाद में प्रचलित हुआ सर्वप्रथम तो यह श्रमण और श्रावक का रक्षा पर्व है।
वर्तमान में यह लोक पर्व भी लोभ का पर्व बनता जा रहा है, बहनें यदि किसी के चार भाई हैं तो अमीर भाई के यहाँ महंगी राखी और शाही मिठाई का डिब्बा जायेगा और जो भाई गरीब है उसे कुछ भी नहीं यह भेदभाव आपके संबंधों को बिगाड़ रहा है। इस भेदभाव से परे सब में समान भाव के साथ संबंधों को मजबूत बनाना चाहिए। वास्तव में भाई-बहन का रिश्ता धन पर आधारित नहीं है और वात्सल्य और प्रेम पर टिका हुआ है
श्रमण संस्कृति की रक्षा एवं वात्सल्य का महापर्व है- रक्षाबंधन महापर्व- भावलिंगी संत श्रमणाचार्य श्री विमर्शसागर जी महामुनिराज
