सहारनपुर-जिसके हृदय में भक्ति का उदय होता है उसी के हृदय में सौभाग्य का उदय होता है। भक्ति भावों का दर्पण है। यदि आप जानना चाहते हैं कि आप स्वयं गुणवान है या नहीं ? यदि आप अपने भविष्य के बारे में जानना चाहते हैं? तो आपको कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं है आप स्वयं ही अपने अंदर झांककर देख लीजिए कि आपके अंतरंग में जिनेन्द्र भगवान की भक्ति है या नहीं। जिस हृदय में प्रभु की निश्चल भक्ति विद्यमान है, वास्तव में नहीं हृदय, वही पुरुष गुणवान है, उसी का भविष्य सुंदर है।
श्री भक्तामर स्तोत्र के प्रथम काव्य का शुद्ध उच्चारण एवं भावार्थ को प्रातःकाल 08:00 बजे की कक्षा में बतलाते हुए आचार्य श्री ने कहा आज हम श्री भक्तामर स्तोत्र के प्रथम काव्य का शुद्ध उच्चारण सीख रहे हैं। बन्धुओं: आपका उच्चारण जितना शुद्ध होगा आपको उतनी ही आनन्दानुभूति होगी। श्री भक्तामर स्तोत्र के प्रथम काव्य में परम पूज्य आचार्य भगवन श्री मानतुंग स्वामी ने प्रथम तीर्थकर भगवान आदिनाथ स्वामी का गुणगान – भक्ति करते हुए कहा है कि प्रथम तीर्थेश भगवान आदिनाथ स्वामी के पादमूल में स्वर्गपुरी के समस्त देवतागण आ-आकर अपना मस्तक झुकाते हैं जिससे उनके मस्तक पर लगे हुए मुकुट भगवान के चरणों का स्पर्श पाते ही अपनी प्रभा को प्रकाशित करने लगते हैं। भगवान ऋषभदेव स्वामी की जो भी प्राणी भाव पूर्वक आराधना करता है उसके जीवन से स्वयमेव ही पापरूपी अंधकार पलायन कर जाता है अर्थात् भगवान आदिनाथ स्वामी ही हमारे पापरूपी अंधकार को नाश करने वाले हैं। इस धरा पर जब भोग भूमि के युग का अंत एवं कर्मभूमि युग प्रारंभ हो रहा था तब किसी को भी कर्म का ज्ञान नहीं था तब राज्यावस्था में उन्होंने षट्कर्मी का उपदेश प्रदान किया एवं स्वयं अरहंत अवस्था प्राप्त कर अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा संसार समुद्र में गिरते हुए- डूबते हुए प्राणी समूह को आलम्बन बनकर उन्हें संसार दुःखों से बचाकर सच्चे सुख का समीचीन मार्ग का दिग्दर्शन किया। ऐसे हे प्रथम तीर्थेश भगवान आदिनाथ स्वामी ! मैं मन-वचन-काया से दूप चरणों में नमस्कार कर आपकी स्तुति प्रारंभ करता हूँ
पापरूपी अंधकार को नाश करने वाले हैं- प्रथम तीर्थेश आदिनाथ भगवान – भावलिंगी संत श्रमणाचार्य श्री विमर्शसागर जी महामुनिराज
