जैन बाग में लग रहा है सिस आराधना का मेला
संसार में जितने भी जीव हैं वे सभी धर्मात्मा जीव हैं क्योंकि प्रत्येक जीव के अन्दर अनन्त धर्म विद्यमान हैं। प्रत्येक आत्म प्रव्य अनन्त धर्मात्मक गुणों का चित्पिण्ड है किन्तु वे सभी गुणधर्म वर्तमान में विभाव रूप से परिणमन कर रहे हैं और जीव अपने ही स्वभाव गुणों से परिन्चय न करके विभाव गुणों से ही प्रभावित होकर निरंतर दुःख ही दुःखों को भोग रहा है। जब तक आत्मा के शुद्ध स्वभाव एवं वर्तमान विभाव परिणमन की यथार्थता से परिचय कर जीव जिनेन्द्र भगवान द्वारा उपदिष्ट समीचीन मार्ग पर अग्रसर नहीं होता तब तक दुःखों की परंपरा निरंतर बढ़ती ही रहती है। ऐसा सम्यक धर्मोपदेश धर्मनगरी सहारनपुर के जैनबाग स्थित श्री 1008 महावीर जिनालय में चल रहे “श्री सिद्धचक्र महामण्डल विधान” के मध्य परम पूज्य जिनागम पंथ प्रवर्तक “जीवन है पानी की बूंद ” महाकाव्य के मूल रचनाकार संघ शिरोमणि भावूलिंगी संते श्रमणाचार्य श्री 108 विमर्शसागर जी महामुनिराज ने उपस्थित धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए दिया ।
आचार्य श्री ने बतलाया – सिद्धों की आराधना करते-करते एक दिन स्वयं हमारी आत्मा भी सिद्ध स्वरूप हो जाती है। सिद्ध भगवानों की आराधना हमें बताती है कि जो गुण सिद्ध परमात्मा में प्रगट हैं वे ही अनंत गुण हम सबकी आत्मा में अप्रगट रूप से विधमान हैं। सिद्ध भगवन्तों की आराधना प्रज्वलित दीप की भाँति हमारे आत्मा रुपी बुझे हुये दीप को भी प्रज्वलित कर सिद्ध स्वरूप प्रगट करा देती है।
10 जुलाई से 21 अक्टूबर तक जैन धर्म के अनुसार यह न्यातुमसि का काल कहलाता है जिसमें दिगम्बर जैन मुनि एक ही स्थान पर ठहरकर अपनी तप-साधना किया करते हैं। वर्ष 2025 में भावलिंगी संत दिगम्बराचार्य श्री विमर्श सागर जी महामुनिराज के विशाल चतुर्विध संघ का मंगलमय चातुर्मास कराने का महा-सौभाग्य सहारनपुर धर्मनगरी को प्राप्त हुआ ।
4 माह के दीर्घ कालीन प्रवास में आचार्य संघ की सनिधि में बैठकर समाज एवं नगर के आबाल-वृद्ध अपने जीवन में दिव्य सूत्रों को उपलब्ध कर जीवन को एक नयी दशा एवं दिशा प्रदान कर सकेंगे। पूर्वजों का कहना है कि हम लोगों की याद में भी इतना विशाल चतुर्विध संघ प्रथम बार ही सहारनपुर में आया है। हम सब आचार्य संघ की सेवा-वैयावृत्ति करके अपने जीवन में सौभाग्यों का अवतरण करेंगे !
भगवान की भक्ति दीपक की भाँति हमारे दीप को भी प्रज्वलित कर देती है- भावलिंगी संत दिगम्बराचार्य श्री 108 विमर्श सागर जी महामुनिराज
