सहारनपुर-जिन्दगी में दुःख तो हर कदम पर मिलते हैं किन्तु सुख प्राप्त करने के लिए, जो स्वयं परमसुखी हो गये हैं ऐसे जिनेन्द्र भगवान के चरणों में आना होगा। जिसप्रकार, तीक्ष्ण धूप से संतप्त मनुष्य सघन विशाल वटवृक्ष का आश्रय करता है उसी प्रकार, संसारी जीव को सुख प्राप्ति के लिए जिनेन्द्र भगवान का झाश्रय करना ही होगा ।
परर्म पूज्य आचार्य भगवन् मानतंग स्वामी प्रथम तीर्थकर भगवान आदिनाथ स्वामी की स्तुति-भक्ति करते हुए कहते हैं- हे जिनेन्द्र भगवान् ! आप में अनंत गुण विद्यमान हैं। जिस प्रकार, विशाल समुद्र की एक-एक बूंद को गिनने के लिए इस धरती पर कोई भी समर्थ नहीं है उसी प्रकार, भगवान के अनंत गुणों को गिनना संभव नहीं है और न ही भगवान के एक-एक गुण का बखान किया जा सकता है। जिनेन्द्र भगवान के सम्पूर्ण गुणों को कहने में स्वयं बृहस्पति (सुरगुरु) भी समर्थ नहीं है तब हे जिनेन्द्र भगवान ! मैं शक्ति हीन आपके सम्पूर्ण गुणों का गुणगान कैसे कर सकता हूँ अर्थात्नही कर सकता ।
एक सच्चा भक्त, विवेकी भक्त भगवान के समक्ष स्वयं को अकिंचन मानता है और भगवान के केवलज्ञान के समक्ष स्वयं के क्षायो पशमिक ज्ञान को हीन ही मानता है। जिनेन्द्र भगवान की भक्ति आराधना में आचार्य प्रवर स्वयं को अल्पज्ञानी एवं विद्वानों की हसी का पात्र बताते हुए सोदाहरण अपने द्वारा भक्ति का कारण बताते हुए कहते हैं – जिसप्रकार सिंह के पंजों के बीच पड़ा हुआ हिरणी का बच्चा, हिरणी अपनी शक्ति का विचार न करती हुमी अपने शिशु की रक्षा के लिए सिंह के सामने उपस्थित होकर उसका सामना करती है उसी प्रकार हे जिनेन्द्र देव ! मैं भी अपनी शक्ति का विचार न करते हुए मात्र प्रीतिवश – भक्तिवशात् आपकी भक्ति आराधना करने को तत्पर हो रहा हूँ।
अभिमानी जीव कभी भगवान् की भक्ति नहीं कर सकता। भक्त बनने के लिए भक्ति करने के लिए अभिमान का विसर्जन आवश्यक है। भगवान के समवशरण में विराजमान बड़े-बड़े ऋषि, गणधर आदि ज्ञानी मुनिराज भी स्वयं को अल्पश्रुत अर्थात अल्पज्ञानी कह देते हैं। आखिर क्यों? बन्धुओ ! जिसने अभिमान को छोड़ दिया वही भगवान के केवलज्ञान के समक्ष स्वयं को अल्पज्ञानी घोषित करते हैं। इस लोक में कोई दो-चार शास्त्र क्या पढ़ लेते हैं ‘वे अपने आप को महाज्ञानी समझने लगते हैं, उनकी ऐसी प्रवृत्ति ही यह निर्णय करा देती है कि इस व्यक्ति में अभिमान है ज्ञान नहीं’ है। क्योंकि समीचीन ज्ञान कभी अभिमान को पैदा नहीं करता, समीचीन ज्ञान तो अभिमान का नाश करने वाला होता है। ध्यान रखो, जहाँ अभिमान बढ़ रहा है वहाँ ज्ञान नहीं केवल अज्ञान ही बड़ रहा है।
जो ज्ञान अभिमान पैदा करे वह ज्ञान नहीं घोर अज्ञान है- भावलिंगी संत श्रमणाचार्य श्री 108 विमर्शसागर जी महामुनिराज
