व्यसन करने वाला व्यक्ति धार्मिक अनुष्ठान करने का पात्र नहीं हैं -मुनिश्री विलोकसागर

मुरैना (मनोज जैन नायक) व्यसनों में लिप्त सांसारिक प्राणी धार्मिक अनुष्ठान, पूजा, पाठ आदि करने की पात्रता नहीं रखता है । व्यसनी व्यक्ति श्री जिनेंद्र प्रभु का स्पर्श तक नहीं कर सकता, पूजा पाठ अभिषेक तो बहुत दूर की बात है । व्यसन करने वाले को सभी जगह हेय दृष्टि से देखा जाता है, ऐसा व्यक्ति सर्वत्र निंदा का पात्र बनता है । व्यसनी व्यक्ति देश धर्म समाज एवं परिवार पर बोझ होता है । वह सदैव अपने आप को एवं अपने परिवार को दुखी करता है, संकट में डालता है । व्यसनों से मुक्त रहना जैन धर्म के पालन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। जैन धर्म के सिद्धांतों का पालन करते हुए व्यक्ति अपने जीवन को शुद्ध, पवित्र और आध्यात्मिक रूप से समृद्ध बना सकता है। व्यसनों से दूर रहकर ही हम आत्मा की शुद्धि और मोक्ष की प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। इस प्रकार जैन सिद्धांत हमें सिखाता है कि सभी के लिए खासकर एक सच्चे जैन अनुयायी के लिए व्यसनों का त्याग अनिवार्य है, जो उसे शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ बनाता है। जैन दर्शन में मांसाहार, मद्यपान, जुआ, चोरी, परस्त्री सेवन, शिकार और वेश्यागमन सात व्यसन बताए गए हैं। ये सभी कर्मों को बढ़ाने वाले और आत्मा को दुःख देने वाले माने जाते हैं । इन सात व्यसनों को जैन धर्म में महापाप माना जाता है और इनसे दूर रहने की शिक्षा दी जाती है । इन व्यसनों का त्याग करके ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है । व्यसनी व्यक्ति कभी भी संयम की साधना नहीं कर सकता । जैन धर्म में इन सात व्यसनों का त्याग अनिवार्य माना गया है, क्योंकि ये व्यक्ति के आत्मिक उत्थान में बाधा उत्पन्न करते हैं। इन सप्त व्यसनों का त्याग करने वाला श्रावक ही मुनिराजों को आहारआदि दान देने के योग्य है, सप्त-व्यसनी नहीं। उक्त उद्गार जैन संत मुनिराजश्री विलोकसागरजी महाराज ने बड़ा जैन मंदिर में धर्म सभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किए ।
मुनिश्री विबोधसागर ने सैकड़ों श्रावकों को कराया व्यसन मुक्त

मुनिराजश्री विवोधसागरजी महाराज नित्य ही अपने पास आने वाले भक्तों को व्यसनों के त्याग की शिक्षा देते हैं। वे आने वाले भक्तों को तब तक नहीं छोड़ते जब तक कि वो धूम्रपान, गुटका आदि का त्याग नहीं कर देता । पूज्य मुनिश्री ने अभी तक सैकड़ों लोगों को व्यसन मुक्त किया है । पूज्य गुरुदेव ने अभी हाल ही में सारगर्भित उद्वोधन देकर पदमचंद जैन, मुकेश जैन, वीरेंद्र जैन, मनोज जैन सहित अनेकों बंधुओं को गुटका और धूम्रपान की लत से छुटकारा दिलाया । पूज्य मुनिश्री विबोध सागर महाराज का कहना है कि व्यसनी व्यक्ति समाज व परिवार के लिए एक कलंक के समान है । व्यसनी व्यक्ति को अपने लिए न सही लेकिन अपने बीबी और बच्चों की खातिर व्यसनों को त्याग देना चाहिए । आप धर्म की बात मत करिए, किन्तु अपने स्वास्थ्य की खातिर, अपने शरीर के लिए इन सबका त्याग कर देना चाहिए । ऐसा करने से आप स्वयं स्वस्थ और खुशहाल तो होगें ही आपका परिवार भी प्रसन्नचित रहेगा । व्यसनों में लिप्त व्यक्ति अक्सर अपनी भावनाओं और इच्छाओं पर नियंत्रण खो देता है, जिससे वह दूसरों के प्रति हिंसक या असंवेदनशील हो सकता है। इस प्रकार, व्यसन अहिंसा के सिद्धांत का सीधा उल्लंघन करते हैं।
व्यसन आत्मा की शुद्धि में बाधक होते हैं ।
व्यसन किसी भी प्रकार की बुरी आदत या नशा होता है जो व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाता है। इनमें धूम्रपान, गुटका, शराब, मादक पदार्थों का सेवन, जुआ खेलना आदि शामिल हैं। ये व्यसन व्यक्ति की सोचने-समझने की शक्ति को कम करते हैं और उसे नैतिक और आध्यात्मिक रूप से कमजोर बनाते हैं।
जैन धर्म में व्यसनों को गंभीर पाप माना गया है। जैन श्रावकों के लिए व्यसनों का त्याग आवश्यक है, क्योंकि ये आत्मा की शुद्धि में बाधक होते हैं। जैन धर्म के अनुसार, किसी भी प्रकार का व्यसन अहिंसा के सिद्धांत का उल्लंघन है। शराब पीने या मादक पदार्थों का सेवन करने से व्यक्ति विवेक शून्य हो जाता है, व्यसन व्यक्ति को हिंसक बना सकता है और उसके विचारों को दूषित कर सकता है । जैन धर्म का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत अहिंसा है, जो केवल शारीरिक हिंसा को ही नहीं, बल्कि मानसिक और वाणी के माध्यम से की जाने वाली हिंसा को भी पाप समझता है ।

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