दुःख, संकट, रोग निवारक श्री भक्तामर स्तोत्र विनय का सुगंधित गुलदस्ता है- भावलिंगी संत परम पूज्य आचार्य प्रवर श्री 108 विमर्शसागर जी महामुनिराज

सहारनपुर-मानव मिथ्या अहंकार और अपनी हठधर्मिता के साथ जीवन के सुख को नष्ट कर देता है,अपने अहंकार के जाल में फंसकर सोचता है कि वह ऊंचाइयों को छूकर,महान बन रहा है,किन्तु स्मरण रहे,अहंकारी पूर्व पुण्योदय से उच्च पद प्राप्त कर भी ले, पर वह कभी महान नहीं हो सकता; उसका जीवन पतन की ओर ही जाता है। इस अहंकार रूपी दुर्गुण को नष्ट करने का एकमात्र उपाय है,विनय,जितनी विनय आपके भीतर होगी उतने ही गुणों से आप समृद्ध होंगे, विनय के आते ही जीवन अनेक गुणों से परिपूर्ण हो जाता है। यह जानने के लिए कि आपके जीवन में विनय है या नहीं, देखें कि क्या आपके हृदय में जिनेंद्र भगवान की भक्ति है। भक्ति वही कर सकता है, जो विनयवान हो।
श्री भक्तामर स्तोत्र की महिमा सर्व विदित है, यह परम भक्ति का स्तोत्र है,सत्य कहें, यह भक्तामर स्तोत्र विनय गुण का सुगंधित पुष्पगुच्छ है,आज विश्व भर में इसके अतिशयों से जन मानस लाभान्वित हो रहा है, इस स्तोत्र का प्रत्येक अक्षर चमत्कारी है,हम इस भक्तामर रूपी वृक्ष के फलों का लाभ तो ले रहे हैं, पर हमें यह भी जानना चाहिए कि इसकी रचना कब, कैसे, किसने और क्यों की? सातवीं शताब्दी में राजा भोज के शासन काल में उज्जैनी नगरी में आचार्य प्रवर श्री मानतुंग स्वामी को 48 तालों में बंद किया गया था, क्रुद्ध राजा ने निर्दोष आचार्य को कारागार में डाल दिया,परंतु आचार्य ने प्रतिकूल परिस्थितियों में भी धैर्य, साहस, समता और जिनेंद्र भगवान की भक्ति नहीं छोड़ी। जेल में ही उन्होंने प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की महास्तुति की, और तत्काल ही 48 ताले स्वयं टूट गए। यह चमत्कार देख राजा आचार्य के चरणों में नतमस्तक हो गया और उसने व प्रजा ने जैन धर्म स्वीकार किया। आचार्य द्वारा रचित यह 48 छंदों की महा स्तुति तब से आज तक श्रद्धा का केंद्र है,इस भक्तामर स्तोत्र का श्रद्धा पूर्वक पाठ करने से लौकिक और पारमार्थिक फल प्राप्त होते हैं

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