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भो प्राणी! तेरा शत्रु तू स्वयं तो नहीं है ?. भावलिंगी संत श्रमणचार्य 108 विमर्श सागर महामुनिराज

भिण्ड महावीर गंज चौराहे पर आचार्य श्री की वाणी जो झूम उठे भक्तों का मनमयूर, जीव का शत्रु कौन है ? समाधान दिया गया – कर्म। भो जीव ! तेरा शत्रु कर्म नहीं है वास्तव में तू ही तेरा शत्रु बना हुआ है। कर्म तो निमित्त मात्र हैं, उन कर्मों को पैदा करने वाला भी तो यही जीव है। एक बात बताओ कि ऐसा कौन सा रास्ता है जो तुझे भटकाता हो ? भाई ! रास्ता कभी किसी को नहीं मटकाता, व्यक्ति अपनी ही भूल- अज्ञानता के कारण विपरीत मार्ग पर चलकर भटकता रहता है, रास्ते ने कभी किसी को नहीं भटकाया।
सोनल जैन पत्रकार ने बताया यह मांगलिक उद्बोधन आचार्य श्री विमर्श सागर जी महा मुनिराज ने भिण्ड के महावीर गंज चौराहे पर विशाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कहा आज भक्त भगवान के पास आराधना करने आता है और अपने मन के अनुकूल प्रतिफल चाहता है। कहता है। 1- प्रभु आपकी भक्ति कब से करता आ रहा हूँ आज तक मेरा यह काम नहीं हुआ और ये व्यक्ति कल ही आया और आज इसका काम हो गया। भगवन्। थोड़ी सी कृपादृष्टि मेरे ऊपर भी कर दो, नहीं तो कल से आना बंद | आज व्यक्ति अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए भगवान के दर पर आता है। यह भक्ति में अविवेक है। सच्चे धर्मात्मा जीव का विवेक यही है कि वह निष्कांक्ष भाव से भगवान की भक्ति करे । भगवान की भक्ति तो परम सुख मोक्ष को देने वाली है फिसंसार की भोग के पदार्थ तो स्वयमेव ही प्राप्त हो जाते हैं। संभार के भोगों को भोगते हुए आज तलक कोई भी जीव संतुष्ट नहीं हुआ है। अपितु जितना जितना यह जीव भोगों की तरफ भागता है उसकी इच्छायें, तृष्णा, आसक्ति निरंतर बड़ती जाती है। अग्नि में लकड़ियाँ डालने से कभी भी अग्नि शान्त नहीं होती अपितु निरंतर बड़ती जाती है वैसे ही भोगों को भोगते रहने से कभी भी कोई प्राणी तृप्त नहीं हो सकता । इस जगत् में प्राणियों ने संसार-शरीर भोगों की कथायें तो अनेकों बार सुनी है किन्तु केवल एकमात्र अपने निज भगवान आत्मा की कथा आज तक न सुनी। यही कारण है कि यह प्राणी निरंतर विषय भोगों की ओर भागता रहता है। सद्गुरु हमारे बीच आते हैं तो वे हमें स्वयं से परिचय कराते हैं और भगवान बनने की राह हमें दिखाते हैं इसलिए गुरु का स्थान भगवान से भी पहले रखा गया है।