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आकिंचन्य धर्म मोह का त्याग करना सिखाता है:विज्ञमती

ग्वालियर, 8 सितंबर। सोना, चांदी, धन-दौलत, आभूषण आदि का मोह न रखकर अपनी इच्छाओं पर काबू रखने से गुणवान कर्मों की वृद्धि होती है। त्याग के साथ तृष्णा घटाने और समता लाने का नाम ही उत्तम आकिंचन्य धर्म है। ये हमें मोह का त्याग करना सिखाता है। यह उदगार गुरुवार को पट्ट गणिनी आर्यिकाश्री विज्ञमती माताजी ने चम्पाबाग बगीची में पर्युषण पर्व के नौवें दिन ‘उत्तम आकिंचन्य धर्म’ की व्याख्या करते हुए व्यक्त किए।
माताजी ने बताया कि भादौं का महीना हमें खाली करने और धर्म से जोड़ने का मार्ग प्रशस्त करता है। 10 दिन के पर्युषण सबके मन में उत्साह भरते हैं। जिस प्रकार कोयला जलने के बाद सफेद हो जाता है, उसी तरह पर्युषण हमारे अंदर की कालिमा को खत्म कर देते हैं। माताजी ने कहा कि आज का दिन संकल्प-विकल्प को दूर करने वाला है।
जैन धर्म संतरे का जूस नहीं
माताजी ने कहा कि जैन धर्म संतरे का जूस या लॉलीपॉप नहीं है। ये धर्म खरा है, स्पष्ट है, दुसाध्य है। ये लाखों गुना साध्यता प्रदान करता है। जब तक शरीर क्षीण नहीं होता, तब तक तप के अंकुरों को प्रस्फुटित करता है। वृद्धावस्था में साधना क्षीण हो जाती है। साधना का सही समय तो युवावस्था ही होती है।
परिग्रह से ही आकिंचन्य का पालन संभव
इस अवसर पर आर्यिकाश्री विजितमती माताजी ने कहा कि संसार मे सिर्फ मुनिराज ही सुखी हैं। उनमें परिग्रह नहीं होता। परिग्रह की सीमा श्रावक भी रख सकता है। जिसने संपत्ति व सभी सुखों का त्याग कर दिया, वही सबसे सुखी होता है। ये काम दिगंबर मुनि करते हैं। उन्होंने सभी परिग्रह का त्याग कर मोक्ष को अपना लक्ष्य बना लिया है। माताजी ने कहा कि हमारे देश में वैभव की नहीं, वैभव त्यागने वालों की पूजा होती है। संयम व चारित्र्य धारण कर साधना की ओर बढ़ा जाता है। जैन दर्शन कहता है कि श्रावक भी परिग्रह की ओर बढ़ें। जो व्यक्ति परिवार से मोह बढ़ाता है, वह परिग्रह करता है। इसलिए परिग्रह का त्याग कर आकिंचन्य को अपनाकर अपना मन धर्म में लगाओ।
नृत्य नाटिका का मंचन
जैन समाज के प्रवक्ता ललित जैन ने बताया कि धर्मसभा के पहले सौधर्म इंद्र मनीष जैन परिवार ने दीप प्रज्वलित किया। शांतिधारा का सौभाग्य पवन जैन, निहित जैन, सोनल जैन परिवार हेलीपैड कॉलोनी को प्राप्त हुआ। रात्रि में जैन सोशल ग्रुप इंटरनेशनल ने नृत्य नाटिका ‘कर्मों का फल’ और प्रश्नमंच का आयोजन किया।