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बिना संयम और नियम के जीवन की यात्रा लक्ष्यविहीन – आर्षमति माताजी 

पर्युषण पर्व का छटवां दिन - संयम  धर्म  

ग्वालियर, 5 सितम्बर।  जब एक बेल बांस से बंधती है तो वह ऊपर की ओर उठती है, और एक बाल्टी की कड़ी में रस्सी बांध दी जाती है तो वह बाल्टी कितनी भी गहराई में चली जाऐ वह रस्सी उसे निकाल ही लायेगी। मान्यवर, इस जीवन की बेल को धर्म के बंधन से बांध दो तो निश्चत जीवन ऊपर ही उठेगा। सत्य बडा नाजुक होता है, जीवन में सत्य आ भी जाये तो उस सत्य को समय की आंधियों से बचाने के लिये अपने मन के दिये पर संयम का एक कांच लगा लो। यह मन जिज्ञासओं से भरा होता है, कैसे मिटे मन के यह विकल्प, तुम संकल्प करो विकल्प स्वयं ही मिटेगा। यह उदगार आज पयुर्षण पर्व के छटवें दिन उत्तम संयम धर्म की व्याखा समझाते हुए पूज्य गणिनी आर्यिका आर्षमति माताजी ने जैन धर्मशाला मुरार में दिए।
संयम से होती है जीवन की सुरक्षा – माताजी ने कहा कि संयम का दूसरा नाम जीवन की सुरक्षा है। संयम की पटरी पर चलने वाली गाड़ी मोक्ष के स्टेशन पर पहुचती है। असंयमी व्यक्ति उस कौलू के बैल के समान होता है जो चलता तो दिन भर है, लेकिन पहुचता कहीं नहीं है। ऐसे ही जिसके जीवन में कोई संयम नहीं, नियम नहीं, संकल्प नहीं, उसके मानव जीवन की यात्रा सार्थक नहीं हो सकती। जीवन को ऊचांईयो पर ले जाने के लिय कुछ तो नियम में बंधना होगा मेेरे भाई। जैसे हाथी को वश में करने के लिये अंकुश का होना जरूरी है, वैसे ही इस मन के हाथी पर संयम का अंकुश जरूरी होता है। मै तो कहती हूुं बिना संयम के जीवन की यात्रा लक्ष्य विहीन होती है।
हर परिस्थिति में जीना सिखाता है संयम – जो लोग संयम और नियम में बंधकर जीवन जीते है वह हर परिस्थिति में जीना सीख जाते है। जैन दर्शन के अनुसार व्यक्ति का समय एक सा नहीं रहता, पता नही कब कैसी परिस्थिति निर्मित हो जाये। जो संयमी व्यक्ति सब कुछ होते हुए भी सीमितता में जीवन जीता है वह प्रतिकुल परिस्थिति में आनन्द के साथ जीवन जीता है।

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